नई दिल्ली, ६ जुलाई-परमाणु करार के मुद्दे पर जहां आम मुसलमानों में कोई दिलचस्पी नहीं है, वहीं मुसलिम नेता भी इसे कोई तवज्जो देने के मूड में नहीं हैं। इस मसले पर राजनीतिक दल जरूर तुष्टिकरण की नीति अपनाने की कोशिश कर रहे हैं। इसके बावजूद मुसलिम राजनीति में गर्माहट नहीं ला सके हैं।
परमाणु करार को भले ही मुसलिम राजनीति के चश्मे से देखा जा रही है, लेकिन आम मुसलमान इससे पूरी तरह बेखबर हैं। परमाणु करार क्या है? ज्यादातर लोगों को अभी इसकी जानकारी तक नहीं है। अलबत्ता कुछ राजनीतिक दल जरूर मुसलमानों को खुश करने के लिए इसकी आड़ ले रहे हैं। आम मुसलमानों का मानना है कि परमाणु करार होने या न होने से न तो उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होने जा रही है, न ही उनकी सुरक्षा पर कोई फर्क पड़ रहा है।
मुसलिम बहुल तुर्कमान गेट इलाके के निवासीहाजी इदरिश का मानना है कि देश के मुसलमान की चिंता रोजगार और सुरक्षा को लेकर रहती है। परमाणु करार जैसे मुद्दे आते-जाते रहते हैं, इनका मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं है। यह पूछने पर कि परमाणु करार क्या है? उनका जवाब था कि मुझे सिर्फ इतना मालूम है कि अमेरिका इसकी हिमायत कर रहा है, जबकि और वामपंथी दल मुखालफत।
वहीं परमाणु समझौते का दारूल उलूम देवबंद के नायब मोहतमिम मुफ्ती अहसान कासमी का कहना है कि इससे मुसलमानों का कुछ लेना-देना नहीं है। राजनैतिक दलों द्वारा मुसलमानों के समर्थन एवं विरोध से इसे जोड़ना बिल्कुल गलत है। उनका कहना है कि परमाणु करार देशहित में है या नहीं है, इसका फैसला वैज्ञानिकों को करना चाहिए, न कि मुसलिम नेताओं को। बाबरी मसजिद एक्शन कमेटी के पूर्व प्रवक्ता जावेद हबीब का कहना है कि परमाणु करार को मुसलमानों से जोड़कर देखना उनके साथ नाइंसाफी है। उन्होंने कहा कि परमाणु करार में क्या है, कांग्रेस को इसका खुलासा करना चाहिए। इसके कार्यान्वयन से न तो मुसलमानों में निराशा है, न ही किसी किस्म का उत्साह।
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