नई दिल्ली, १३ सितम्बर- राष्ट्रीय राजनीति में हिंदी भाषी राज्य भले ही मजबूत दखल रखते रहे हों, लेकिन पढ़ाई-लिखाई के मामले में उनके माथे पर अब भी बड़ा कलंक है। यहां तक कि देश से निरक्षरता न खत्म होने की सबसे बड़ी वजह यही राज्य हैं। सरकार के एक आला अफसर ने तो लगभग पचास प्रतिशत अनपढ़ों के लिए खुले तौर पर उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड जैसे आधा दर्जन हिंदी भाषी राज्यों को जिम्मेदार ठहराया है।
वैसे तो अभी बीते आठ सितंबर को ही सरकार ने अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस पर देश में निरक्षरता मिटाने की प्रतिबद्धता फिर दोहराई है। उसने बड़े गर्व से अनुसूचित जाति में १७ प्रतिशत और जनजाति में १७.५ प्रतिशत साक्षरता दर बढ़ने का गुणगान किया। लेकिन अनपढ़ों को लेकर उत्तर भारत के राज्य उसकी चिंता को ज्यादा बढ़ा रहे हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय में स्कूल शिक्षा एवं साक्षरता विभाग के सचिव ए।के. रथ के मुताबिक, 'उत्तर भारत, खास तौर से हिंदी बोलने वाले सिर्फ पांच राज्यों-उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान - में ही देश के लगभग पचास प्रतिशत निरक्षर हैं।' उसके बाद किसी हद तक आंध्र प्रदेश, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल की स्थिति भी इस मामले में बदतर ही है।
२००१ की जनगणना के आधार पर देखें तो उस समय देश में १५ साल से ऊपर के २६ करोड़ लोग निरक्षर थे। सात साल से ऊपर के निरक्षरों को जोड़ देने पर यह आंकड़ा तीस करोड़ से भी ऊपर पहुंचता था। सरकार अब ११ वीं योजना में २०१२ तक पूरी आबादी के ८० प्रतिशत लोगों को साक्षर बनाने का लक्ष्य लेकर चल रही है। इस योजना में भी लगभग डेढ़ साल बीत चुका है और स्थिति यह है कि ३०४ जिले ऐसे हैं, जहां साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत [कुल आबादी का लगभग ६५ प्रतिशत] से भी कम है। इन ३०४ जिलों में भी २६० ऐसे हैं, जहां महिलाओं की साक्षरता दर पचास प्रतिशत से भी कम है। सरकार जहां अनुसूचित जाति और जनजाति में साक्षरता दर बढ़ने का गुणगान कर रही है, वहीं १७० जिलों में अनुसूचित जाति के पचास प्रतिशत से भी कम लोग साक्षर हैं। आदिवासियों के मामले में २८० जिले इस श्रेणी में आते हैं।
वैसे सरकार इस मामले में गंभीर जरूर दिखने लगी है। उसने दसवीं योजना में जहां साक्षरता के लिए १२०० करोड़ रुपये का बजट रखा था, वहीं ११ वीं योजना में उसे बढ़ाकर छह हजार करोड़ कर दिया है।
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